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शनिवार, 2 जुलाई 2011

वैदिक विज्ञान ऊर्जा का विज्ञान


हमने देखा की इन्द्रियजनित चेतना में भ्रमिक ज्ञान की स्थिति भी उत्पन्न होती है। भ्रमिक ज्ञान का परिमार्जन करना ही विज्ञान है। इस हेतु यूरोपियन विद्वानों ने १५वीं सदी से ही कार्य करना आरम्भ कर दिया था। कहा जाता है चीन में बारुद का अविष्कार हुआ, फिर छापाखाने का भी अविष्कार हुआ। यूरोपियन विद्वानों ने विज्ञान को इससे आगे बढ़ाया और ऐसे उपकरण बनाये जिससे इन्द्रियजनित चेतना से ऊपर उठकर प्रमाणिक जानकारियाँ प्राप्त की गईं। यह ज्ञात हुआ कि पृथ्वी सपाट और चौरस नहीं, बल्कि गोलाकार है। पृथ्वी की अपेक्षा सूर्य के स्थिर रहने एवं पृथ्वी की दैनिक गति के कारण दिन-रात घटित होते हैं। ये वैज्ञानिक उपकरण न केवल कृत्रिम (मनुष्य के बनाये हुए) थे, बल्कि पदार्थ से बने अर्थात् भौतिक भी थे। इसलिए, विज्ञान की दिशा भौतिकवादी रही। विज्ञान का यह नया स्वरूप था जिसे हम पाश्चात्यवादी-विज्ञान कह सकते हैं क्योंकि इसने पदार्थ के सन्दर्भ में ही संसार को देखने की पद्धति को स्वीकार किया है। निश्चितरूप से इसका कारण यह भी है कि विज्ञान के सभी उपकरण कृत्रिम और भौतिक हैं। १९वीं सदी तक आलम यह था कि भौतिक सातत्य को ही सृष्टि का आधार माना जाता था। ऊर्जा को पदार्थ से परे मानते हुए भी यह बताया गया कि ऊर्जा की स्थिति भौतिक सातत्य में ही है। किसी जार में कॉल-वेल (विद्युतचालित घंटी) रखकर वायु-चूषक यन्त्र से उस जार की हवा को खाली करने पर जब घंटी बजायी गई तो पाया गया कि ध्वनि नहीं आ रही है। स्पष्ट था कि ध्वनि तरंगे भौतिक माध्यम में ही बनती हैं। हम यह भी पाते हैं कि विद्युत धारा भी तांबे आदि के तारों के माध्यम से ही बहती है। टेलिफोन के अविष्कार से भी यह स्पष्ट हुआ कि ध्वनि का संचार भी तारों के माध्यम से ही हो रहा है। इन सबका अर्थ यह भी निकला कि ऊर्जा का आधारभूत माध्यम पदार्थ ही है।
विज्ञान का पुरातन स्वरूप परम्परागतरूप से भारत में प्रचलित है जिसमें पदार्थ के स्थान पर ऊर्जा को प्राथमिकता दी गई है। इसके अन्तर्गत पदार्थ का अध्ययन भी उर्जा के सन्दर्भ में ही किया जाता है और संसार का भी। भारतीय विज्ञान को वैदिक विज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है।  
यह बात सही है कि मनुष्यादि प्राणियों का शरीर भौतिक है अर्थात् पदार्थ से बना है, इसलिए पदार्थ की रचना को ही भौतिक संसार का आरम्भ माना जा सकता है। पदार्थ की ईकाई है परमाणु जो इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन और न्यूट्रॉन नामक कणों से बना है। इलेक्ट्रन कणों पर विद्युत का ऋण-आवेश होता है और प्रोटॉन कणों पर धन-आवेश। न्यूट्रॉन कण उदासीन होते हैं जिसका भ्रामकरूप से अर्थ निकाला जाता है कि उसपर विद्युत का कोई आवेश नहीं होता। इस विशेष ज्ञान का प्रमाण चुम्बक के अध्ययन से मिलता है। चुम्बक का एक सिरा उत्तरी ध्रुव कहा जाता है तो दूसरा सिरा दक्षिणी ध्रुव। इन ध्रुवों पर चुम्बक की शक्ति अधिकतम होती है जबकि चुम्बक के केन्द्र पर चुम्बकीय शक्ति उदासीन स्वरूप में होती है।  इस सन्दर्भ में न्यूट्रॉन के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि उसपर विदुयुत-शक्ति का केन्द्रीय आवेश होता है, इसलिए वह उदासीन है। परमाणु के ये अवयवी कण निश्चय ही पदार्थ से परे हैं, इसलिए ये ऊर्जा के ही स्वरूप हैं। अतः प्राकृतिक वास्तविकता यह है कि परमाणु की रचना ऊर्जा से ही हुई है अर्थात् भौतिकता का सृजन ऊर्जा से हुआ है। (परमाणु की उत्पत्ति, संरचना आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा यथास्थान करेंगे तथा शेष व्याख्याएँ वहाँ अंकित करेंगे।)
 वैदिक विज्ञान में जब सृष्टि का उल्लेख किया जाता है तो ईश्वर (ब्रह्म) की धारणा प्रस्तुत की जाती है। यह ब्रह्म ॐकार वाच्य स्वरूप है अर्थात् इसका सम्बन्ध ध्वनि (ऊर्जा) से है। वह (ॐकार वाच्य) ध्वनि ऊर्जा का परम-स्वरूप है, क्योंकि ब्रह्म भी परम है। ऊर्जा का यह परम-स्वरूप ही परमाणु की रचना करने वाली शक्ति है जो अपने तीन सापेक्ष स्वरूपों में प्रकट होती है जिन्हें ग्रन्थों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश (त्रिदेवा) की संज्ञा दी गई है---
ब्रह्मविष्णुशिवा ब्रह्मन्प्रधाना ब्रह्म शक्तयः (विष्णु पुराण, /२२/५८)।
स्पष्ट है कि वैदिक विज्ञान की धारा ऊर्जा से पदार्थ की दिशा में है और यही वास्तविक स्थिति है। आइन्स्टीन के सापेक्षता सिद्धान्त के आधार पर किये गये प्रयोगों से यह प्रमाणित हुआ है कि प्राकृतिक शक्तियाँ (ऊर्जा) देशकालिक-सातत्य (ब्रह्म-सातत्य) के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न प्रकार के विकुंचन हैं। और, इस क्रम में यह भी प्रमाणित हुआ है कि ऊर्जा (विकुंचन) और पदार्थ (परमाणु) एक ही सत्ता के दो अलग-अलग रूप हैंएक ही सिक्के के दो पहलु हैं।
कथितार्थ यह है कि आधुनिक विज्ञान और वैदिक विज्ञान की दिशा एक दूसरे के विपरीत है। भौतिकवादी होने के कारण आधुनिक विज्ञान की दिशा ऋणात्मक (अकल्याणकारी या आसुरी) है, इसलिए उसका ज्ञान-क्षेत्र सीमित है जबकि वैदिक विज्ञान की दिशा अध्यात्मवादी अर्थात् प्राकृतिक वास्विकताओं के अनुरूप है-धनात्मक है, इसलिए इसका ज्ञान-क्षेत्र असीमित हैव्यापक है।
Ramashankar Jamayyar
E-44, Koshi Colony,

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