पृष्ठ

गुरुवार, 27 मई 2010

अंकगणित का इतिहास और विज्ञान

            मानव-बुद्धि अत्यन्त जिज्ञासु होती है। किसी भी चीज को गिनती या माप-तौल कर ठीक-ठीक जानने का प्रयास किया जाता है। गणना की यह विद्या गणित के नाम से जानी जाती है।  गणित को पढ़ने-समझने एवं काम में लाने के लिए जिस व्याकरण की रचना की गई है, उसे अंकगणित कहा जाता है। अंकगणित संज्ञक यह व्याकरण अंकों के विभन्न प्रयोगों के नियम को निर्धारित करता है।
      यद्यपि अंकगणित का इतिहास भारत से आरम्भ होता है, फिर भी हम रोमन-अंकगणित से इसकी चर्चा आरम्भ करेंगे। यह यूरोप की प्राचीनतम सभ्यता रोमन-सभ्यता की देन है।
      गिनती सीखने की प्रारम्भिक प्रक्रिया में हम प्रायः अपनी हथेलियों और उँगलियों का प्रयोग करते हैं। तर्जनी को खड़ी कर एक की संख्या बताते हैं। दो उँगलियों से दो की, तीन उँगलियों से तीन की और चार उँगलियों से चार की संख्या बताई जाती है। एक हथेली में कुल पाँच उँगलियाँ होती हैं, इसलिए एक हथेली खोलकर पाँच का संकेत दिया जाता है। दोनों हथेलियों को खोलने से पाँच+पाँच=दस की संख्या का संकेत दिया जाता है।
      जिस प्रकार भाषा के लिए अक्षरों की आवश्यकता होती है, गणित के लिए अंको की आवश्यकता होती है। रोमनों ने अंको को गढ़ने के लिए रोमन अक्षरों का प्रयोग किया। तर्जनी को खड़ी करने से एक का संकेत मिलता है और यह आकार में आई (I) अक्षर-सी दीखती है, इसलिए I (आई) को एक की संख्या का प्रतीक मान लिया गया। एक हथेली को पूरी तरह खोलने से पाँच का संकेत मिलता है और हथेली का आकार भी (V) जैसा होता है, इसलिए V को पाँच का प्रतीक मान लिया गया। दोनों हथेलियों को परस्पर क्रॉस करने से दसों उँगलिया दीखती हैं, इसलिए X को दस का प्रतीक मान लिया गया। इस भाँति रोमन-अंकगणित में तीन अंक हुए—I (एक), V (पाँच) और X (दस)। विदित हो कि ये संख्याएँ इकाई अक्षरों से प्रकट की जाती हैं, इसलिए इन्हें अंक माना गया। यह नियम बनाया गया कि मूल अंक के दाहिने स्थित अंक उसके मान में अपने मान को जोड़ देगा। इस आधार पर दो अगली संख्याएँ लिखी जा सकीं—II (एक+एक=दो), III (दो+एक=तीन), VI (पाँच+एक=छह), VII (पाँच+दो=सात) एवं VIII (पाँच+तीन=आठ)। अगला नियम यह बनाया गया कि मूल अंक के वाम भाग में स्थित होने वाला अंक मूल अंक के मान में अपने मान के बराबर कमी कर देगा—IV (पाँच-एक=चार), IX (दस-एक=नौ)। इस प्रकार, इन तीन अंकों से एक से दस तक की संख्याओं को लिपिबद्ध किया गया। यही रोमन अंकगणित की प्रारम्भिक अवस्था थी। मध्य युग में पचास के लिए L एवं सौ के लिए C का प्रयोग किया गया।
            इस अंकगणित में मूलतः पाँच अंक (इकाई स्थान को घेरने वाले) हैं। इनमें अधिकतम मान वाला अंक है। रोमनों की काल-गणना की वार्षक पद्धति भी आरम्भ में दस की संख्या पर ही आधारित थी। सप्तम् शब्द से जिस माह का नाम पड़ा, वह सितम्बर है। इसीप्रकार, अष्टम् से अक्तूबर, नवम् से नवम्बर एवं दशम् से दिसम्बर माह का नाम पड़ा। इससे स्पष्ट होता है कि आरम्भ में रोमन-कैलेन्डर में कुल दस माह ही थे जिसकारण वर्ष के अन्तिम माह का नाम दिसम्बर पड़ा। ईसा मसीह के नाम पर स्थापित संवत की स्थापना होने पर इसमें जनवरी और फरवरी माह को आरम्भ में जोड़ा गया जिस कारण दिसम्बर वर्ष का अन्तिम अर्थात् बारहवाँ महीना बन गया। इन माहों के नाम से यह भी आभासित होता है कि रोमन-सभ्यता में गिनती के नाम भी भारत से ही लिये गये थे। परन्तु वे भारत के शून्य’ का ज्ञान स्वीकार नहीं कर पाये। भारतीय अंकगणित में जिस शून्य का उपयोग किया गया है उसका वास्तविक ज्ञान भारत के आध्यात्मिक ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है। रोमन सभ्यता पूरी तरह से भौतिकवादी थी। इस सम्बन्ध में पुराणों में स्पष्ट किया गया है कि एकमात्र भारत ही ऐसी भूमि (देश) है जिसकी संस्कृति अध्यात्मवादी है जबकि शेष भूमियों (देशों) की संस्कृति भोगवादी (भौतिकवादी) हैअत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने। यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः।।(वि०पु०,2/3/22)।। शून्य की व्याख्या आध्यात्मिक ज्ञान के बिना सम्भव। नहीं है, इसलिए भोगवादी होने के कारण शून्य की स्थिति न तो समझ पाये और न ग्रहण कर पाये। फलतः उन्होंने अंकों के निर्धारण के लिए रोमन वर्णमाला का उपयोग किया। वैज्ञानिक दृष्टि से रोमन-अंकगणित असफल था, क्योंकि इसमें गुणन एवं विभाजन की कोई व्यवस्था नहीं थी।
      डार्विन अपने विकासवादी सिद्धान्त के अन्तर्गत बताते हैं कि ‘मनुष्य-जाति एवं उसकी बुद्धि (मस्तिष्क) का क्रमिक विकास हुआ। मनुष्य की उत्पत्ति वनमानुष की अगली पीढ़ी के रूप में हुआ और वह आरम्भ में पशुमानव था। फिर उसका विकास बुद्धिमान-मानव के रूप में हुआ। इस अवस्था में उसने सभ्यताओं की स्थापना की। उसका अगला विकास वैज्ञानिक-बुद्धि सम्पन्न मानव के रूप में हुआ। आधुनिक विज्ञान का आरम्भ यूरोप में हुआ, इसये डार्विन के अनुसार वैज्ञानिकबुद्धि सम्पन्न मानवों का विकसित स्वरूप सर्वप्रथम यूरोप में ही प्रकट हुआ।
            यह समझाने की कोई आवश्यकता नहीं कि गणित ही विज्ञान की आधारभूत विद्या है। जो सिद्धान्त गणित के प्रतिकूल जाते हों, उन्हें वैज्ञानिक सिद्धान्त नहीं माना जाता है, क्योंकि गणित में ही सत्य के प्रतिपादन की क्षमता है। आधुनिक विज्ञान में ‘रोमन-अंकगणित’ का कोई स्थान नहीं है। वह जिस गणित को स्वीकार करता है, वह शून्य-आधारित गणित है। इसकी जिस लिपि को सर्वमान्य समझा गया है, उस हम भूलवश अंग्रेजी-लिपि मान लेते हैं। परन्तु, यह हमारी भूल है, क्योंकि यह अंकों की अरबी-लिपि है।
      इतिहास प्रमाणित करता है कि अरबों-मंगोलों के औपनिवेशिक शासन-काल में ही यूरोपवासियों शून्य-आधारित अंकगणित का ज्ञान मिला, जिसके लिए उन्होंने अंकों की अरबी लिपि को यथावत् स्वीकार किया। इस अंकगणित के साथ-साथ यूरोपवासियों को उनसे ‘बारूद’ का भी ज्ञान मिला। इन दोनों ज्ञान को स्वीकार करने के फलस्वरूप ही यूरोपवासियों में वैज्ञानिक जागृति सम्भव हो सका। तात्पर्य यह है कि शून्य आधारित अंकगणित का प्रकाश उन्हें एशिया से मिला, इसलिए विज्ञान की आधारभूत विद्या एशिया में मौजूद थी।
      इतिहास यह भी प्रमाणित करता है कि अरबों ने शून्य-आधारित अंकगणित का ज्ञान ‘भारत’ से प्राप्त किया और मंगोलों ने यह ज्ञान अरबों से प्राप्त किया। अरबों ने अंकों की भारतीय लिपि का रूपान्तरण किया जिसे अंकों की अरबी-लिपि कहा जाता है। अतः शून्यआधारित अंकगणित का आदि-प्रणेता भारत है और भारतवासी वैज्ञानिक-बुद्धि से सम्पन्न थे। इसका प्रमाण रामसेतु से मिलता है। वर्ष 2003-04 में एक अमेरिकी भू-उपग्रह ने पता लगाया था कि रामसेतु का शेष भाग समुद्रतल पर उपस्थित है एवं अपनी कम्प्यूट्रीकृत व्यवस्था के माध्यम से इसे लगभग दस लाख वर्ष पुराना बताया था। भगवान श्रीराम ने लंका पर आक्रमण के लिए समुद्र पर रातोंरात जिस पुल का निर्माण किया था, उसे ही रामसेतु कहा जाता है। सोचिए, एक नदी पर पुल बाँधने में कई माह/वर्ष लग जाते हैं जबकि श्रीराम ने रातोंरात समुद्र पर पुल बाँध लिया था! उस समय का भारतीय विज्ञान आज की अपेक्षा कितना उन्नत था!
रमाशंकर जमैयार           

कोई टिप्पणी नहीं: