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मंगलवार, 25 मई 2010

विज्ञान ने कलयुग अर्थात् कलियुग की स्थापना की है


विज्ञान की दिशा ऋणात्मक है

आज हर बात पर हम विज्ञान की दुहाई देते हैं, लेकिन कभी यह मनन नहीं किया कि आखिर विज्ञान क्या है? 16वीं सदी से यूरोप में ज्ञान का जो निरन्तर विकास हुआ, क्या वह विज्ञान है? इसके मर्म का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि इस विकास का उद्देश्य ज्ञान का विकास नहीं, आर्थिक विकास था, इसलिए अविष्कारों के रूप में नये-नये मशीनों के अविष्कार हुए, उनका संवर्द्धन हुआ और इससे सम्बन्धित नई तकनिक का विकास हुआ। इसी के कारण यूरोप में औद्योगिक-क्रान्ति हुई। कम आबादी वाले क्षेत्र में मशीनी उत्पादन और औद्योगिक क्रान्ति के कारण सामग्रियों की प्रचुरता बढ़ी तो बाजार की आवश्यकता हुई और पाश्चात्य-सभ्यता ने उपनिवेशवादी तेवर अख्तियार किये तथा उसके अविष्कारकों ने संहारक अस्त्रों का, वह भी मशीनों के रूप में विकास करना शुरु किया। इसलिए, आधुनिक विज्ञान ने 'कलयुग' की स्थापना की, ज्ञानयुग की नहीं।

       विज्ञान शब्द में ज्ञान शब्द भी अन्तर्नहित है, अर्थात् बिना ज्ञान के विज्ञान की सत्ता स्थापित नहीं हो सकती। ज्ञान का सम्बन्ध सत्य से है। सत्य की पहचान बताते हुए श्रुतियाँ कहती हैं--सत्यंशिवंसुन्दरमं अर्थात् सत्य (पूर्ण सत्य) सदैव कल्याणकारी होता है। मान लें कि कोई छेना की बनी हुई मिठाई है तो उसमें छेना के साथ रस (चीनी) मिला हुआ है, इसलिए उसमें स्वास्थ्यकर तत्त्वों और स्वाद के आनन्द का कल्याणात्मक स्वरूप प्रकट है। इसलिए मिठाई सत्य तभी है, जब वह कल्याणकारी भी है। यह कल्याण-तत्त्व मधुरता/सुन्दरता के रूप में परिलक्षित रहता है। इसी कारण मिठाईयों की आकृतयाँ भी सुन्दर दीखती हैं। यही स्थिति प्राकृतिक सत्य के साथ भी है। सत्य जितना ही पूर्ण होगा, उतना ही वह कल्याणकारी होगा और उसकी अनुभूति उतनी ही आनन्ददायक या सुन्दर होगी। इसी आधार पर ब्रह्म को पूर्ण और परम कहा गया है। सत्य की दृष्टि से भी वह पूर्ण सत्य है, परमरूप से सत्य है, इसलिए वह कल्याणकारी है। उसकी अनुभूति भी परमरूप से आनन्ददायक होती है, इसलिए ब्रह्मानन्द को सच्चिदानन्दघनस्वरूप भी कहा जाता है।
       हम सभी जानते हैं कि विज्ञान ब्रह्म (ईश्वर) की परिकल्पना से भी घृणा करना सिखाता है। यूरोप के प्रसिद्ध विद्वान, दार्शनिक और तथाकथित वैज्ञानिक क्रमिक विकास की व्याख्या ही इस प्रकार करते हैं कि ईश्वर की परिकल्पना ही मूर्खता नजर आती है। जिस सिद्धान्त में कुतर्क के द्वरा सत्य को इसप्रकार असत्य साबित किया गया होगा, वह सिद्धान्त कितना अवैज्ञानिक होगा, इसका सहज अनुमान आप स्वयं कर सकते हैं। यही कारण है कि यूरोप में स्थापित जिस विद्या को लोग विज्ञान मानते हैं, उसे मैं विज्ञान नहीं, मशीनी-विद्या या आसुरी-विद्या का नाम देता हूँ। तद्नुरूप, आधुनिक युग वैज्ञानिक-युग नहीं, कलयुग है। इसके लिये सही शब्द यदि कहीं है तो पुराणों में है जिसमें इस युग को कलियुग की संज्ञा दी गई है, क्योंकि इस युग में सत्य के स्थान पर भोग का ज्ञान है, नैतिकता के स्थान पर छलनात्मक चतुराई का ज्ञान है और विवेक को तो ग्रन्थों में वर्णित आदर्श आचार संहिता का रूप मानकर उसे अन्धविश्वास का दर्जा दे दिया गया है।
1.       आधुनिक विज्ञान ने पर्यावरण-संतुलन को बर्बाद कर प्रकृति को कुपित किया है।
यूरोप में स्थापित इस कलयुग ने मनुष्यों की इन्द्रियों एवं शरीरांगों के सुख-भोग के लिए यन्त्र बनाये हैं। यह मान लिया जाता है कि इनसे से कम श्रम में, कम ताकत लगाकर और कम समय में अपने काम को पूर्ण कर लिया जाता है। फिर, प्रशंषा की जाती है कि मनुष्य की यह वैज्ञानिक बुद्धि कितनी अद्भुत है! सायकिल से मोटरकार एवं रेल तक, पानी के जहाज से वायुयान और रॉकेट तक सभी मशीन (यंत्र) हैं। कम्पयूटर, फ्रिज, एयर कन्डीशनर आदि भी सभी मशीन हैं। इनसे कम समय में, कम श्रम से और कम ताकत लगाकर अपने काम को पूर्ण किया जाता है। लेकिन, इसी समय हम यह भूल जाते हैं कि इनमें से अधिकांश मशीनों से मानव-शरीर और पर्यावरण को प्रदुषित करने वाले धूम्र एवं तरंगें का निस्सरण होता है। इसके कारण मानव-समाज का भविष्य निरन्तर खतरनाक होता जा रहा है।
        अब तो, संयुक्त राष्ट संघ के स्तर पर पर्यवरण-संतुलन बनाये रखने एवं उत्पन्न हो रहे पर्यावरण सम्बन्धी विकृतियों को दूर करने के उपाय खोजने पर बल दिया जा रहा है। स्पष्ट है कि विज्ञान की दिशा अबतक पूरी तरह ऋणात्मक रही है, अकल्याणकारी रही है, इसलिए इसने कल्याण का नही, अकल्याण का सृजन किया है।
2.       विज्ञान के संसाधन अपूर्म और क्षणिक है
       आधुनिक विज्ञान में एक तो ऊर्जा के ज्ञान की कमी है और दूसरा उसके सोच का आधार इस कदर भौतिक है कि वह पदार्थ से ही ऊर्जा का दोहन करता है। उसे सीधे-सीधे नाक छूने की कला नहीं आती। हाथ को घूमाकर पीछे से नाक का स्पर्श करने में ही उसे वैज्ञानिकता नजर आती है। विज्ञान के साधारण विद्यार्थी भी जानते हैं कि प्रयोगशालाओं जल में एसिड मिला कर जब जस्ते तथा तांबे के प्लेट लगाये जाते हैं तो यह पाया जाता है कि जलकण टूटते हैं और एक प्लेट पर हाईड़ोजन तथा दूसरे पर आक्सीजन मुक्त होता है। ऐसा इसलिए कि जलाणु इन दोनों गैसों से ही बने हैं। यहाँ प्राकृतिक वास्तविकता यह प्रकट होती है कि इन दोनों तत्त्वों के परमाणु विद्युत-शक्ति की उपस्थिति में ही संयोगकर जलाणु रूप में संयुक्त होते हैं और जलाणु की स्थिति विद्युत-विकुंचन की केन्द्र-स्थानीय सत्ता के रूप में प्रकट रहती है। इसकारण, जैसे ही जलाणु टुटते हैं, विद्युत-आवेश भी विभक्त हो जाते हैं। ऊपर के प्रयोग में जब दोनों प्लेटों को तारों से जोड़ दिया जाता है तो मुक्त हुए विद्युत-आवेशों के कारण बिजली बहने लगती है। इसका सीधा अर्थ है कि विद्युत-शक्ति के सातत्य में जल-सातत्य स्थित है और विद्युत-शक्ति प्राकृतिकरूप से उपस्थित है। परन्तु, विज्ञान को इस प्राकृति-शक्तिरूप विद्युत का उपयोग करना नहीं आता।
       इसके लिये वह जेनरेटर नामक यन्त्र बनाता है। उसे चलाने के लिये भौतिक-ईंधन अर्थात् कोयला, खनिज-तेल आदि का उपयोग करता है। हम सभी जानते हैं कि ये भूगर्भ से निकाले जाते हैं और एक दिन इनकी उपलब्धि समाप्त होने वाली है। इसलिये, विज्ञान के संसाधन अपूर्ण और क्षणिक हैं।
3.       विज्ञान-प्रेरित आधुनिक संस्कृति मानव-समाज के लिये घातक है
       वैज्ञानिक अविष्कार एक ओर तो पर्यावरण-असंतुलन का कारण बन रहे हैं और ओजोन-परत का क्षिद्र बढ़ता जा रहा है जिसके कारण ऋतुएँ बदलने लगी हैं। आँधी-तूफान, सुनामी, ज्वालामुखी-विस्फोट आदि प्राकृतिक प्रकोप की घटनाएँ बढ़ रही हैं। यह सब प्रकृति का चक्र नहीं, मानव की आसुरी-बुद्धि का प्रकृति-विरोधी आचरण का परिणाम है।
       वैज्ञानिक अविष्कार एवं इनके कारण स्थापित नई संस्कृति मानव-शरीर की प्रकृति के लिये घातक हैं। मनुष्य जब अपने अंगों का प्रकृति द्वारा निर्धारित मापदंड के अनुरूप संचालन नहीं करता तो उसके अंग धीर-धीरे कमजोर होने लगते हैं। सुख-सुविधाओँ के कारण मनुष्य अपने पैरों-हाथों से कम से कम काम करने लगा है। इससे न केवल हाथ-पैरों की शक्ति कम होती जा रही है, बल्कि बैठे रहने एवं सुस्थी की अवस्था में उदर की चपाचय-शक्ति भी प्रभावित हो रही है। एयर-कन्डिशनर एवं अन्यान्य सुविधाओँ के उपयोग ने हमें प्रकृति से इतना दूर कर दिया है कि पौ-फटने के समय की हवाओं तथा प्राकृतिक सान्निध्य सपना बन चुका है। रात्रि में देर तक जागकर मनोरंजन और क्लब-साधना के कारण मल-मूत्र का त्याग हम तब करते हैं जब सूरज सर पर चढ़ चुका होता है। हमारा ही मल-मूत्र तबतक सड़कर हमारे शरीर को भीतर से खराब करता होता है और हम समझ नहीं पाते। इसकारण, बीमारियाँ नाना-प्रकार के विभत्सरूप धारण कर रही हैं और हम यह सोच कर रह जाते हैं कि विज्ञान एक दिन उन बीमारियों की दवाएँ इजाद कर लेगा। कर भी लेता है तो कुछ होने वाला नहीं, क्योंकि जब तक वह पिछली बीमारी की दवा खोजेगा, तबतक अगली कोई नई बीमारी प्रकट होगी।
4.       विज्ञान सामाजिक असुरक्षा का कारण बन चुका है
    वैज्ञानिक अविष्कारों के रूप में विज्ञान निरन्तर घातक से घातक शस्त्रास्त्रों का निर्माण करता चला आया है। यूरोप में विज्ञान की स्थापना-काल से भारत की आजादी के पूर्वतक विश्व ने कई विश्वयुद्ध देखे हैं जिसके पीछे विज्ञान के अविष्कार ही रहे हैं। हिरोशिमा पर परमाणु-बम गिराये गये, जिसका परिणाम आज भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। अब, शान्ति-काल चल रहा है। दो ध्रुवीय विश्व में अमेरिका का प्रतिद्वन्दी सोवियत-संघ टूट गया। क्या फिर भी, शस्त्रास्त्रों के अविष्कार एवं निर्माण में कहीं कोई कमी आई है? निश्चय ही नहीं। क्योंकि, यह सब मानव-हित के लिये नहीं, आर्थिक लाभ के लिये है। पाश्चात्य देशों की छलनात्मक कूटनीति भिन्न-भिन्न देशों में आतंकवादियों एवं तानाशाहों को स्थापित करती हैं, उनसे धन लेकर उन्हें शस्त्रास्त्र मुहैया कराया जाता है। फिर शस्त्रास्त्रों की बिक्री के लिये दो तानाशाहों को एक दूसरे से उलझा दिया जाता है। आज के अपराधी चाहे चाहे वे नक्सलवादी-आतंक स्थापित करते हों, या राष्ट्र-विरोध के लिये खड़े किये गये हों या जेहाद के नाम पर स्थापित किये गये हों, या तस्करी आदि से सम्बन्धित माफियावादी संगठन ही क्यों न हों, सबके पास नई-नई आधुकनिकतम तकनिक वाले हथियार हैं जो कई देशों के सामान्य पुलिस-धानों तक मुहैया नहीं रहते। इससे सामाजिक असुरक्षा की स्थिति सम्पूर्ण समाज में व्याप गई है।
    इन विश्लेषणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञान की दिशा पूरी तरह से ऋणात्मक है, अकल्याणकारी है। इसने आसुरी-प्रवृत्ति का चयन किया है, कलयुग की स्थापना की है। इसमें सत्य-स्वरूप ईश्वर का कोई ज्ञान नहीं है। नैतिकता, विवेक और आत्मबल का कोई विचार नहीं है। सत्य-विमुख ज्ञान की तकनिक को विज्ञान कैसै कहा जा सकता है?
    ऐसी भी बात नहीं कि विज्ञान का सही स्वरूप का कोई वजूद नहीं। विज्ञान के सही स्वरूप की स्थिति अभी भी भारत में वैदिक-विज्ञान के रूप में वर्तमान है। हमें इसकी पुनर्स्थापना करके दुनिया से कलयुग अर्थात् कलियुग की स्थिति को शीघ्र समाप्त करना होगा।  
रमाशंकर जमैयार
(Ramashankar Jamayyar)
ई-44, कोशी कॉलोनी, वीरपुर (सुपौल), बिहार।

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