इन्द्रियजनित चेतना और विज्ञान
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संसार की वस्तुओं को जड़ और चेतन में विभाजित किया जा सकता है। सभी जीव (प्राणी) चेतनशील हैं। यह चेतना ही है जिसके कारण प्राणी बाहरी उत्तेजनाओं के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। मनुष्य भी प्राणी है, इसलिए चेतनशील है, परन्तु उसकी चेतना अन्यान्य प्राणियों के मुकाबले उत्कृष्ट है, इसलिए वह ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण है। तात्पर्य यह है कि ‘ज्ञान-विज्ञान’ का निकटतम सम्बन्ध हमारी ‘चेतना’ से है, क्योंकि चेतना के बिना ज्ञान-विज्ञान का कोई आस्तित्व ही सम्भव नहीं। इसलिए, विज्ञान के वास्तविक स्वरूप को समझना है तो मनुष्य की चैतन्य-शक्ति का स्वरूप समझना आवश्यक है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन सर्वप्रथम मनुष्य में अन्तर्निहित चैतन्य-शक्ति का अध्ययन करता है और उसकी जानकारी देता है जो योगदर्शनों से स्पष्ट होता है। विज्ञान का अध्ययन अत्यल्प भी है और अपूर्ण भी। फिर भी, आधुनिक विज्ञानविद् स्वीकार करते हैं कि चेतना और इसकी प्रक्रिया में ही बुद्धि और ज्ञान की स्थिति निहित है।
मानवी चेतना को हम आधुनिक विज्ञान के माध्यम से भी समझ सकते हैं। विदित हो कि वाह्य-उत्तेजनाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रकृति ने हमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ प्रदान की हैं। चक्षु (आँख) से दृश्य-उत्तेजना, श्रोत (कान) से श्रवण (ध्वनि) उत्तेजना, नासिका से गन्ध-उत्तेजना, जिह्वा से स्वाद-उत्तेजना और त्वचा से स्पर्श-उत्तेजना की चेतना प्राप्त होती है। तात्पर्य यह है कि इन्हीं ज्ञानेन्द्रियों से हम वाह्य उत्तेजना की चेतना (ज्ञान) प्राप्त करते हैं।
ज्ञानेन्द्रियों के रूप में जो स्थूल अंग हैं, वे तो महज ग्राहक-यन्त्र हैं। उनसे जुड़ी हुई है स्नायु-प्रणाली और यह प्रणाली मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है। आधुनिक विज्ञान में स्नायु-प्रणाली और मस्तिष्क का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन किया गया है। इससे इन्द्रियजनित अनुभूतियों (चेतनाओं) की कुछ हद तक व्याख्या तो हो ही जाती है। परन्तु, यहाँ एक प्राकृतिक तथ्य को विस्मृत कर बैठते हैं जिसके कारण इससे सम्बन्धित ‘विज्ञान’ अधूरा रह जाता है।
यहाँ पर हम ‘मन’ की सत्ता को विस्मृत कर बैठते हैं, क्योंकि वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा मन की सत्ता का प्रमाण नहीं मिल पाया है। फिर भी, ध्यान एक ऐसी मनोस्थिति है जिसकी अनुभूति हर व्यक्ति को होती है। आधुनिक मनोविज्ञान स्वीकार करता है कि यह (ध्यान) मन की बलात्मक शक्ति है। किसी ज्ञानेन्द्रिय (मान लें कि आँख) के सम्मुख कोई वाह्य-उत्तेजना स्थित हो, परन्तु हमारा ध्यान वहाँ नहीं जाता तो उस उत्तेजना की संवेदना नहीं होती। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि हमारी इन्द्रियों पर ‘मन’ का नियंत्रण है और वह अपनी ध्यान संज्ञक शक्ति को निरोपित कर उनसे कार्य कराता है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हम यथास्थान अवश्य करेंगे। यहाँ यह आभास देना भर था कि चेतना के मनरूपी इस प्रधान कारण को विज्ञान समझ नहीं पाया है, ऐसी स्थिति में सामान्य मनुष्य कैसे समझ पायेगाॽ
यही कारण है कि हम उस ज्ञान को ही प्रमाणिक मान बैठते हैं जो इन्द्रियों के माध्यम से प्रत्यक्ष होता है। उदाहरण के लिए धरती और सूर्य की इन्द्रियजनित अनुभूति पर विचार करें। इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर हमें आभासित होता है कि हमारी धरती चौरस और सपाट है जबकि यह वास्तविक सत्य नहीं है। विज्ञान द्वारा प्रमाणित सत्य यह है कि हमारी पृथ्वी का आकार नारंगी की तरह गोलाकार है।
इसीप्रकार, इन्द्रियजनित अनुभूतियाँ बताती हैं कि हमारी पृथ्वी स्थिर है और सूर्य इसके चारों ओर चक्कर लगा रहा है जिसके कारण दिन-रात घटित हो रहा है। यह स्थिति सभी मनुष्यों के साथ है, चाहे वह वैज्ञानिक ज्ञान से परिपूर्ण हो या न हो। परन्तु, स्थिति इसके ठीक उलट है। विज्ञान बताता है कि हमारी गोलाकार पृथ्वी अपनी धूरी पर लट्टू की तरह अपने ही चारों ओर घूमती रहती है। उसके इस चक्कर की एक आवृत्ति चौबीस घंटे में पूर्ण होती है। पृष्वी की अपेक्षा सूर्य अपने स्थान पर स्थिर है जिसके कारण सूर्य का प्रकाश धरती पर पड़ता है। धरती का जो हिस्सा सूर्य के सामने पड़ता है, वहाँ दिन होता है और जो हिस्सा पीछे रह जाता है, वहाँ रात होती है। चूँकि, पृथ्वी अपनी धूरी पर लट्टू की भाँति लगातार घूम रही है, इसलिए जो हिस्सा सूर्य के सामने था, वह हिस्सा खिसकता हुआ पीछे चला जाता है और पीछे का हिस्सा आगे आता जाता है।
इससे यह निश्चित हो जाता है कि इन्द्रियजनित ज्ञान में वैज्ञानिकता का अभाव सम्भव है। प्रश्न यह है कि वैज्ञानिक सत्य को जानने के लिए इन्द्रियातीत अनुभूति (ज्ञान) की आवश्यकता हैॽ पाश्चात्यवादी विद्वानों के पास इन्द्रियातीत अनुभूतियों की कोई परिकल्पना नहीं थी। उन्होंने इन्द्रियजनित ज्ञान से ऊपर की जानकारी के लिए उपकरणों की रचना की जिन्हें वैज्ञानिक उपकरण की संज्ञा दी गई। इसप्रकार वैज्ञानिक उपकरण निर्मित हुए जो वैज्ञानिक ज्ञान के विकास के माध्यम बने। इस क्रम में ज्यों-ज्यों जानकारियाँ बढ़ती गईं, त्यों-त्यों तकनिकी विकास के क्रम में नये-नये उपकरण बनते गये। इसप्रकार, पाश्चात्यवादी वैज्ञानिक जानकारी मूलतः उपकरणों के तकनिकी विकास पर आश्रित रहा है। विज्ञान की इस पाश्चात्य पद्धति ने कल-युग की स्थापना की है। Ramashankar Jamayyar
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1 टिप्पणी:
बेहतरीन लिखा है, अच्छे शब्द लेख में बिल्कुल सही कहा/बताया है
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