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सोमवार, 5 अगस्त 2013

ब्रह्म और विज्ञान

वेदादि श्रुतियाँ और स्मृतियों, पुराणादिकों एवं अन्यान्य भारतीय ग्रन्थों में ब्रह्म को ही इस चराचर सृष्टि का सर्वोच्च और परम सत्य बताया गया है। तात्पर्य यह है कि वास्तविक सत्य है ब्रह्म। इसी सन्दर्भ में अनेकानेक प्रकार से सत्य को पारिभाषित भी किया गया है अर्थात् वैदिक विज्ञान के अन्तर्गत सत्य का तात्पर्य ब्रह्म से है। इस सत्य की जानकारी को ज्ञानकहते हैं और इस सत्य के प्रति भ्रमात्मक जानकारी को अज्ञानकी संज्ञा दी गई है। श्रीमद्भगवद्गीता की ज्ञानेश्वरी टीका में श्रीज्ञानदेवजी ने इसी सत्य का प्रतिपादन करते हुए बताया है कि सापेक्षता ही प्रपञ्च है, जो सभी भ्रमों का कारण है। यह प्रपञ्च (सापेक्षता) भी ब्रह्म का ही रचित है, परन्तु वहस्वयं उससे परे है। आगे बताते हैं कि यह प्रपञ्च ही विज्ञान का विषय है। इस प्रपञ्च को सत्य मान लेना ही अज्ञान है—प्रपञ्चोन्यत्तु विज्ञानमज्ञानं तत्र सत्यधीः। इस प्रकार, जानकारी के तीन क्षेत्र हैं ज्ञान, विज्ञान और अज्ञान।
यहाँ पर सहज प्रश्न उठता है कि आखिर यह ब्रह्म तर्क, विचार और बुद्धि से परे क्यों है वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि हमारी (सभी जीव-जन्तुओं समेत) अनुभूतियाँ सापेक्ष होती हैं, इसलिए यह निश्चित हो जाता है कि बुद्धि, विचार और तर्क भी सापेक्ष होते हैं—निरपेक्ष नहीं हो पाते। चूँकि ब्रह्मनिरपेक्ष है, सापेक्ष नहीं, इसलिए उसकी अनुभूति नहीं हो पाती और न वह बुद्धि, विचार और तर्क के अन्तर्गत आ पाता है। अतः हम प्रश्न उठा सकते हैं कि उसमें निहित जो निरपेक्षता है, वह क्या है
भारतीय मनीषियों ने इस सन्दर्भ में ब्रह्म के गुणों (विशेषता) का निरुपण करते हुए कहा कि वह अनादि-अनन्त’, ‘कालातीतऔर अखण्डहै। कालातीत (काल+अतीत) का अर्थ है समय-गुणक से परे और अनादि-अनन्त का अर्थ है स्थान-गुणक से परे। तात्पर्य यह है कि वह स्थान और समय गुणकों से परे है। इसका सीधा-सा तात्पर्य यह है कि ब्रह्म परम है, क्योंकि वह माप के सभी गुणकों से परे है। फिर भी, वैदिक-विज्ञान बताता है कि यही ब्रह्मसंज्ञक परम-सत्ता ही इस सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का वास्तविक सत्य है।      
इसके ठीक विपरीत, एक और तो आधुनिक विज्ञान स्वयं को सत्य का प्रतिपादक कहता है और यह दावा करता है कि वह वह अपने वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में सत्य का परीक्षण करके उसका प्रतिपादन करता है, वहीं दूसरी ओर वह ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। यहाँ पर वह स्पष्ट करता है कि विश्व में कोई भी निरपेक्ष-सत्ता नहीं है।
यहाँ पर असलियत यह है कि आधुनिक विज्ञान महज सापेक्ष-सत्ताओं का परीक्षण करता है, क्योंकि उसकी सीमा सापेक्षता तक ही सीमित है। वह वास्तविक सत्य (ब्रह्म) का प्रतिपादन करने में अक्षम है। अपनी अक्षमता के कारण वह उसने ब्रह्म को अंधविश्वास की संज्ञा दे रखी है। पाठक यह न समझें कि मैं स्व-विवेक से आधुनिक विज्ञान को इस सन्दर्भ में अक्षम बता रहा हूँ। आधुनिक विज्ञान के सुप्रसिद्ध दार्शनिक आइन्स्टीन महोदय ने भी जर्मन वैज्ञानिक मैक्सबोर्न को लिखे पत्र में इस अक्षमता की चर्चा की है और यह कामना की है कि एक दिन ऐसा आयेगा जब विज्ञान परम-सत्ता के आस्तित्व की वैज्ञानिक व्याख्या करने में समर्थ हो पायेगा।     
क्या ब्रह्म कोई सत्ता है
भारतीय मनीषी और प्राचीन ग्रन्थों के रचनाकार बताते हैं कि ब्रह्म सर्वशक्तिमान है-- परमेश्वर है—सबका नियन्ता है। लेकिन, इससे यह पता नहीं चलता कि सत्ता की दृष्टि वह क्या है जहाँ तक विज्ञान का प्रश्न है, वह दो प्रकार की सत्ताओं को जानता है---पदार्थ और ऊर्जा। इतना तो आभास होता है कि अभौतिक होने के कारण वह पदार्थ से परे है। दूसरी सत्ता है ऊर्जा। वैज्ञानिक सन्दर्भ में पदार्थ की सत्ता को पारिभाषित करते हुए यह कह सकते हैं कि वह शून्य में स्थान ग्रहण करता है तथा वह भारगुणक के अन्तर्गत होता है। इसके ठीक विपरीत, ऊर्जा शून्य में स्थान नहीं छेकती और वह भारगुणक से परे है। वैज्ञानिक बताते हैं ऊर्जा के ध्वनि, विद्युत, चुम्बकत्व आदि अनेकानेक रूप हैं और वह एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती हुई एक अनश्वर सत्ता है।
इस दृष्टि से ग्रन्थों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि ब्रह्म एक प्रकार की ऊर्जा है। विदित हो कि उसे अक्षर-ब्रह्म भी कहते हैं और यह भी बताया गया है कि ॐकार-वाच्य ही  अक्षर-ब्रह्म है। यहाँ इसमें कोई विवाद नहीं कि वाच्य का अर्थ ध्वनि है, इसलिए ॐकार वाच्य निश्चित रूप से एक प्रकार की ध्वनि है। इसलिए, ब्रह्म ऊर्जा का ही एक स्वरूप है। यहाँ पर अगला तथ्य यह है कि चूँकि ब्रह्म स्थान और समय गुणकों से परे अर्थात् परम है, इसलिए ब्रह्म-संज्ञक वह ध्वनि-ऊर्जा भी परम है। यही कारण है कि अक्षर-ब्रह्म (ॐकार वाच्य) को परा-वाक् भी कहा गया है। परा का तात्पर्य उसके परम होने से—माप के गुणकों से परे होने से है तथा वाक् का अर्थ ध्वनि है।
यहाँ पर वैदिक विज्ञान सुनिश्चित रूप से बताता है कि वह ऊर्जा जो एक रूप से दूसरे रूप में परिणत होती हुई अनश्वर है, उसका इन रूपों के अतिरिक्त एक मौलिक-स्वरूप भी है जिसे ब्रह्म की संज्ञा दी जाती है। अर्थात् ब्रह्म ही ऊर्जा का मौलिक स्वरूप है जो अनश्वर (समय-गुणक से परे) तथा अनादि-अनन्त (स्थान गुणक) से परे है। ऊर्जा का यह मौलिक-स्वरूप (ब्रह्म) ध्वनि-ऊर्जा का ही परम-स्वरूप है। इस सिद्धान्त के आधार पर यह भी सिद्ध होता है कि ऊर्जा के सभी रूपों में ध्वनि-ऊर्जा ही मौलिक-ऊर्जा का निकटतम स्वरूप है।

भारतीय साधक ॐ ध्वनि का जाप करते हैं। इसमें ओ के उच्चारण में जितना समय लगता है उसका तीनगुना समय लगाकर का उच्चारण करते हैं और हेलन्तयुक्त म (म्) को मिलाकर इस मन्त्र को पूरा करते हैं। व्याकरण के अनुसार इस ध्वनि में अ, उ, और म् की मात्राएँ संयुक्त रहती हैं, फिर भी यह ध्वनि इकाई-ध्वनि है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि ॐ की ध्वनि अ, उ, और म वर्णों का संयुक्ताक्षर नहीं है, बल्कि इसमें इन तीनों की मात्राएँ मात्र ही शामिल हैं। इसी ॐ से उपरोक्त तीन वर्णों की उत्पत्ति हुई है। साथ ही, यह भी सत्य है कि जिस ॐ-ध्वनि का हम उच्चारण करते हैं वह ॐकार-वाच्य अर्थात् ब्रह्म-ध्वनि नहीं है, बल्कि उसकी निकटतम प्रतीति मात्र है, क्योंकि हमारे स्वर-तंत्र भौतिक हैं; वे निरपेक्ष-ध्वनि नहीं उत्पन्न कर सकते। इस ध्वनि का अभ्यास हमारे अन्दर के उस तंत्र (मन) को झंकृत कर देता है, जहाँ वास्तविक ॐकार-वाच्य को प्रकट किया जा सकता है। विदित हो कि विज्ञान के आधार यह मान्य है कि ध्वनियों और कम्पनों में उपपादन (induction) का गुण है। इसकारण ही, अभायास से वास्तविक ॐकार वाच्य मनरूप अन्तर्पटल पर व्यक्त होने लगता है।
रमाशंकर जमैयार

सोमवार, 4 जुलाई 2011

इन्द्रियजनित चेतना और विज्ञान

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                                               इन्द्रियजनित चेतना और विज्ञान
संसार की वस्तुओं को जड़ और चेतन में विभाजित किया जा सकता है। सभी जीव (प्राणी) चेतनशील हैं। यह चेतना ही है जिसके कारण प्राणी बाहरी उत्तेजनाओं के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। मनुष्य भी प्राणी है, इसलिए चेतनशील है, परन्तु उसकी चेतना अन्यान्य प्राणियों के मुकाबले उत्कृष्ट है, इसलिए वह ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान-विज्ञान का निकटतम सम्बन्ध हमारी चेतना से है, क्योंकि चेतना के बिना ज्ञान-विज्ञान का कोई आस्तित्व ही सम्भव नहीं। इसलिए, विज्ञान के वास्तविक स्वरूप को समझना है तो मनुष्य की चैतन्य-शक्ति का स्वरूप समझना आवश्यक है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन सर्वप्रथम मनुष्य में अन्तर्निहित चैतन्य-शक्ति का अध्ययन करता है और उसकी जानकारी देता है जो योगदर्शनों से स्पष्ट होता है। विज्ञान का अध्ययन अत्यल्प भी है और अपूर्ण भी। फिर भी, आधुनिक विज्ञानविद् स्वीकार करते हैं कि चेतना और इसकी प्रक्रिया में ही बुद्धि और ज्ञान की स्थिति निहित है।
मानवी चेतना को हम आधुनिक विज्ञान के माध्यम से भी समझ सकते हैं। विदित हो कि वाह्य-उत्तेजनाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रकृति ने हमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ प्रदान की हैं। चक्षु (आँख) से दृश्य-उत्तेजना, श्रोत (कान) से श्रवण (ध्वनि) उत्तेजना, नासिका से गन्ध-उत्तेजना, जिह्वा से स्वाद-उत्तेजना और त्वचा से स्पर्श-उत्तेजना की चेतना प्राप्त होती है। तात्पर्य यह है कि इन्हीं ज्ञानेन्द्रियों से हम वाह्य उत्तेजना की चेतना (ज्ञान) प्राप्त करते हैं।
ज्ञानेन्द्रियों के रूप में जो स्थूल अंग हैं, वे तो महज ग्राहक-यन्त्र हैं। उनसे जुड़ी हुई है स्नायु-प्रणाली और यह प्रणाली मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है। आधुनिक विज्ञान में स्नायु-प्रणाली और मस्तिष्क का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन किया गया है। इससे इन्द्रियजनित अनुभूतियों (चेतनाओं) की कुछ हद तक व्याख्या तो हो ही जाती है। परन्तु, यहाँ एक प्राकृतिक तथ्य को विस्मृत कर बैठते हैं जिसके कारण इससे सम्बन्धित विज्ञान अधूरा रह जाता है।
यहाँ पर हम मन’ की सत्ता को विस्मृत कर बैठते हैं, क्योंकि वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा मन की सत्ता का प्रमाण नहीं मिल पाया है। फिर भी, ध्यान एक ऐसी मनोस्थिति है जिसकी अनुभूति हर व्यक्ति को होती है। आधुनिक मनोविज्ञान स्वीकार करता है कि यह (ध्यान) मन की बलात्मक शक्ति है। किसी ज्ञानेन्द्रिय (मान लें कि आँख) के सम्मुख कोई वाह्य-उत्तेजना स्थित हो, परन्तु हमारा ध्यान वहाँ नहीं जाता तो उस उत्तेजना की संवेदना नहीं होती। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि हमारी इन्द्रियों पर ‘मन’ का नियंत्रण है और वह अपनी ध्यान संज्ञक शक्ति को निरोपित कर उनसे कार्य कराता है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हम यथास्थान अवश्य करेंगे। यहाँ यह आभास देना भर था कि चेतना के मनरूपी इस प्रधान कारण को विज्ञान समझ नहीं पाया है, ऐसी स्थिति में सामान्य मनुष्य कैसे समझ पायेगाॽ  
यही कारण है कि हम उस ज्ञान को ही प्रमाणिक मान बैठते हैं जो इन्द्रियों के माध्यम से प्रत्यक्ष होता है। उदाहरण के लिए धरती और सूर्य की इन्द्रियजनित अनुभूति पर विचार करें। इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर हमें आभासित होता है कि हमारी धरती चौरस और सपाट है जबकि यह वास्तविक सत्य नहीं है। विज्ञान द्वारा प्रमाणित सत्य यह है कि हमारी पृथ्वी का आकार नारंगी की तरह गोलाकार है।
इसीप्रकार, इन्द्रियजनित अनुभूतियाँ बताती हैं कि हमारी पृथ्वी स्थिर है और सूर्य इसके चारों ओर चक्कर लगा रहा है जिसके कारण दिन-रात घटित हो रहा है। यह स्थिति सभी मनुष्यों के साथ है, चाहे वह वैज्ञानिक ज्ञान से परिपूर्ण हो या न हो। परन्तु, स्थिति इसके ठीक उलट है। विज्ञान बताता है कि हमारी गोलाकार पृथ्वी अपनी धूरी पर लट्टू की तरह अपने ही चारों ओर घूमती रहती है। उसके इस चक्कर की एक आवृत्ति चौबीस घंटे में पूर्ण होती है। पृष्वी की अपेक्षा सूर्य अपने स्थान पर स्थिर है जिसके कारण सूर्य का प्रकाश धरती पर पड़ता है। धरती का जो हिस्सा सूर्य के सामने पड़ता है, वहाँ दिन होता है और जो हिस्सा पीछे रह जाता है, वहाँ रात होती है। चूँकि, पृथ्वी अपनी धूरी पर लट्टू की भाँति लगातार घूम रही है, इसलिए जो हिस्सा सूर्य के सामने था, वह हिस्सा खिसकता हुआ पीछे चला जाता है और पीछे का हिस्सा आगे आता जाता है।
 इससे यह निश्चित हो जाता है कि इन्द्रियजनित ज्ञान में वैज्ञानिकता का अभाव सम्भव है। प्रश्न यह है कि वैज्ञानिक सत्य को जानने के लिए इन्द्रियातीत अनुभूति (ज्ञान) की आवश्यकता है पाश्चात्यवादी विद्वानों के पास इन्द्रियातीत अनुभूतियों की कोई परिकल्पना नहीं थी। उन्होंने इन्द्रियजनित ज्ञान से ऊपर की जानकारी के लिए उपकरणों की रचना की जिन्हें वैज्ञानिक उपकरण की संज्ञा दी गई। इसप्रकार वैज्ञानिक उपकरण निर्मित हुए जो वैज्ञानिक ज्ञान के विकास के माध्यम बने। इस क्रम में ज्यों-ज्यों जानकारियाँ बढ़ती गईं, त्यों-त्यों तकनिकी विकास के क्रम में नये-नये उपकरण बनते गये। इसप्रकार, पाश्चात्यवादी वैज्ञानिक जानकारी मूलतः उपकरणों के तकनिकी विकास पर आश्रित रहा है। विज्ञान की इस  पाश्चात्य पद्धति ने कल-युग की स्थापना की है।   
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शनिवार, 2 जुलाई 2011

वैदिक विज्ञान ऊर्जा का विज्ञान


हमने देखा की इन्द्रियजनित चेतना में भ्रमिक ज्ञान की स्थिति भी उत्पन्न होती है। भ्रमिक ज्ञान का परिमार्जन करना ही विज्ञान है। इस हेतु यूरोपियन विद्वानों ने १५वीं सदी से ही कार्य करना आरम्भ कर दिया था। कहा जाता है चीन में बारुद का अविष्कार हुआ, फिर छापाखाने का भी अविष्कार हुआ। यूरोपियन विद्वानों ने विज्ञान को इससे आगे बढ़ाया और ऐसे उपकरण बनाये जिससे इन्द्रियजनित चेतना से ऊपर उठकर प्रमाणिक जानकारियाँ प्राप्त की गईं। यह ज्ञात हुआ कि पृथ्वी सपाट और चौरस नहीं, बल्कि गोलाकार है। पृथ्वी की अपेक्षा सूर्य के स्थिर रहने एवं पृथ्वी की दैनिक गति के कारण दिन-रात घटित होते हैं। ये वैज्ञानिक उपकरण न केवल कृत्रिम (मनुष्य के बनाये हुए) थे, बल्कि पदार्थ से बने अर्थात् भौतिक भी थे। इसलिए, विज्ञान की दिशा भौतिकवादी रही। विज्ञान का यह नया स्वरूप था जिसे हम पाश्चात्यवादी-विज्ञान कह सकते हैं क्योंकि इसने पदार्थ के सन्दर्भ में ही संसार को देखने की पद्धति को स्वीकार किया है। निश्चितरूप से इसका कारण यह भी है कि विज्ञान के सभी उपकरण कृत्रिम और भौतिक हैं। १९वीं सदी तक आलम यह था कि भौतिक सातत्य को ही सृष्टि का आधार माना जाता था। ऊर्जा को पदार्थ से परे मानते हुए भी यह बताया गया कि ऊर्जा की स्थिति भौतिक सातत्य में ही है। किसी जार में कॉल-वेल (विद्युतचालित घंटी) रखकर वायु-चूषक यन्त्र से उस जार की हवा को खाली करने पर जब घंटी बजायी गई तो पाया गया कि ध्वनि नहीं आ रही है। स्पष्ट था कि ध्वनि तरंगे भौतिक माध्यम में ही बनती हैं। हम यह भी पाते हैं कि विद्युत धारा भी तांबे आदि के तारों के माध्यम से ही बहती है। टेलिफोन के अविष्कार से भी यह स्पष्ट हुआ कि ध्वनि का संचार भी तारों के माध्यम से ही हो रहा है। इन सबका अर्थ यह भी निकला कि ऊर्जा का आधारभूत माध्यम पदार्थ ही है।
विज्ञान का पुरातन स्वरूप परम्परागतरूप से भारत में प्रचलित है जिसमें पदार्थ के स्थान पर ऊर्जा को प्राथमिकता दी गई है। इसके अन्तर्गत पदार्थ का अध्ययन भी उर्जा के सन्दर्भ में ही किया जाता है और संसार का भी। भारतीय विज्ञान को वैदिक विज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है।  
यह बात सही है कि मनुष्यादि प्राणियों का शरीर भौतिक है अर्थात् पदार्थ से बना है, इसलिए पदार्थ की रचना को ही भौतिक संसार का आरम्भ माना जा सकता है। पदार्थ की ईकाई है परमाणु जो इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन और न्यूट्रॉन नामक कणों से बना है। इलेक्ट्रन कणों पर विद्युत का ऋण-आवेश होता है और प्रोटॉन कणों पर धन-आवेश। न्यूट्रॉन कण उदासीन होते हैं जिसका भ्रामकरूप से अर्थ निकाला जाता है कि उसपर विद्युत का कोई आवेश नहीं होता। इस विशेष ज्ञान का प्रमाण चुम्बक के अध्ययन से मिलता है। चुम्बक का एक सिरा उत्तरी ध्रुव कहा जाता है तो दूसरा सिरा दक्षिणी ध्रुव। इन ध्रुवों पर चुम्बक की शक्ति अधिकतम होती है जबकि चुम्बक के केन्द्र पर चुम्बकीय शक्ति उदासीन स्वरूप में होती है।  इस सन्दर्भ में न्यूट्रॉन के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि उसपर विदुयुत-शक्ति का केन्द्रीय आवेश होता है, इसलिए वह उदासीन है। परमाणु के ये अवयवी कण निश्चय ही पदार्थ से परे हैं, इसलिए ये ऊर्जा के ही स्वरूप हैं। अतः प्राकृतिक वास्तविकता यह है कि परमाणु की रचना ऊर्जा से ही हुई है अर्थात् भौतिकता का सृजन ऊर्जा से हुआ है। (परमाणु की उत्पत्ति, संरचना आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा यथास्थान करेंगे तथा शेष व्याख्याएँ वहाँ अंकित करेंगे।)
 वैदिक विज्ञान में जब सृष्टि का उल्लेख किया जाता है तो ईश्वर (ब्रह्म) की धारणा प्रस्तुत की जाती है। यह ब्रह्म ॐकार वाच्य स्वरूप है अर्थात् इसका सम्बन्ध ध्वनि (ऊर्जा) से है। वह (ॐकार वाच्य) ध्वनि ऊर्जा का परम-स्वरूप है, क्योंकि ब्रह्म भी परम है। ऊर्जा का यह परम-स्वरूप ही परमाणु की रचना करने वाली शक्ति है जो अपने तीन सापेक्ष स्वरूपों में प्रकट होती है जिन्हें ग्रन्थों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश (त्रिदेवा) की संज्ञा दी गई है---
ब्रह्मविष्णुशिवा ब्रह्मन्प्रधाना ब्रह्म शक्तयः (विष्णु पुराण, /२२/५८)।
स्पष्ट है कि वैदिक विज्ञान की धारा ऊर्जा से पदार्थ की दिशा में है और यही वास्तविक स्थिति है। आइन्स्टीन के सापेक्षता सिद्धान्त के आधार पर किये गये प्रयोगों से यह प्रमाणित हुआ है कि प्राकृतिक शक्तियाँ (ऊर्जा) देशकालिक-सातत्य (ब्रह्म-सातत्य) के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न प्रकार के विकुंचन हैं। और, इस क्रम में यह भी प्रमाणित हुआ है कि ऊर्जा (विकुंचन) और पदार्थ (परमाणु) एक ही सत्ता के दो अलग-अलग रूप हैंएक ही सिक्के के दो पहलु हैं।
कथितार्थ यह है कि आधुनिक विज्ञान और वैदिक विज्ञान की दिशा एक दूसरे के विपरीत है। भौतिकवादी होने के कारण आधुनिक विज्ञान की दिशा ऋणात्मक (अकल्याणकारी या आसुरी) है, इसलिए उसका ज्ञान-क्षेत्र सीमित है जबकि वैदिक विज्ञान की दिशा अध्यात्मवादी अर्थात् प्राकृतिक वास्विकताओं के अनुरूप है-धनात्मक है, इसलिए इसका ज्ञान-क्षेत्र असीमित हैव्यापक है।
Ramashankar Jamayyar
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गुरुवार, 27 मई 2010

अंकगणित का इतिहास और विज्ञान

            मानव-बुद्धि अत्यन्त जिज्ञासु होती है। किसी भी चीज को गिनती या माप-तौल कर ठीक-ठीक जानने का प्रयास किया जाता है। गणना की यह विद्या गणित के नाम से जानी जाती है।  गणित को पढ़ने-समझने एवं काम में लाने के लिए जिस व्याकरण की रचना की गई है, उसे अंकगणित कहा जाता है। अंकगणित संज्ञक यह व्याकरण अंकों के विभन्न प्रयोगों के नियम को निर्धारित करता है।
      यद्यपि अंकगणित का इतिहास भारत से आरम्भ होता है, फिर भी हम रोमन-अंकगणित से इसकी चर्चा आरम्भ करेंगे। यह यूरोप की प्राचीनतम सभ्यता रोमन-सभ्यता की देन है।
      गिनती सीखने की प्रारम्भिक प्रक्रिया में हम प्रायः अपनी हथेलियों और उँगलियों का प्रयोग करते हैं। तर्जनी को खड़ी कर एक की संख्या बताते हैं। दो उँगलियों से दो की, तीन उँगलियों से तीन की और चार उँगलियों से चार की संख्या बताई जाती है। एक हथेली में कुल पाँच उँगलियाँ होती हैं, इसलिए एक हथेली खोलकर पाँच का संकेत दिया जाता है। दोनों हथेलियों को खोलने से पाँच+पाँच=दस की संख्या का संकेत दिया जाता है।
      जिस प्रकार भाषा के लिए अक्षरों की आवश्यकता होती है, गणित के लिए अंको की आवश्यकता होती है। रोमनों ने अंको को गढ़ने के लिए रोमन अक्षरों का प्रयोग किया। तर्जनी को खड़ी करने से एक का संकेत मिलता है और यह आकार में आई (I) अक्षर-सी दीखती है, इसलिए I (आई) को एक की संख्या का प्रतीक मान लिया गया। एक हथेली को पूरी तरह खोलने से पाँच का संकेत मिलता है और हथेली का आकार भी (V) जैसा होता है, इसलिए V को पाँच का प्रतीक मान लिया गया। दोनों हथेलियों को परस्पर क्रॉस करने से दसों उँगलिया दीखती हैं, इसलिए X को दस का प्रतीक मान लिया गया। इस भाँति रोमन-अंकगणित में तीन अंक हुए—I (एक), V (पाँच) और X (दस)। विदित हो कि ये संख्याएँ इकाई अक्षरों से प्रकट की जाती हैं, इसलिए इन्हें अंक माना गया। यह नियम बनाया गया कि मूल अंक के दाहिने स्थित अंक उसके मान में अपने मान को जोड़ देगा। इस आधार पर दो अगली संख्याएँ लिखी जा सकीं—II (एक+एक=दो), III (दो+एक=तीन), VI (पाँच+एक=छह), VII (पाँच+दो=सात) एवं VIII (पाँच+तीन=आठ)। अगला नियम यह बनाया गया कि मूल अंक के वाम भाग में स्थित होने वाला अंक मूल अंक के मान में अपने मान के बराबर कमी कर देगा—IV (पाँच-एक=चार), IX (दस-एक=नौ)। इस प्रकार, इन तीन अंकों से एक से दस तक की संख्याओं को लिपिबद्ध किया गया। यही रोमन अंकगणित की प्रारम्भिक अवस्था थी। मध्य युग में पचास के लिए L एवं सौ के लिए C का प्रयोग किया गया।
            इस अंकगणित में मूलतः पाँच अंक (इकाई स्थान को घेरने वाले) हैं। इनमें अधिकतम मान वाला अंक है। रोमनों की काल-गणना की वार्षक पद्धति भी आरम्भ में दस की संख्या पर ही आधारित थी। सप्तम् शब्द से जिस माह का नाम पड़ा, वह सितम्बर है। इसीप्रकार, अष्टम् से अक्तूबर, नवम् से नवम्बर एवं दशम् से दिसम्बर माह का नाम पड़ा। इससे स्पष्ट होता है कि आरम्भ में रोमन-कैलेन्डर में कुल दस माह ही थे जिसकारण वर्ष के अन्तिम माह का नाम दिसम्बर पड़ा। ईसा मसीह के नाम पर स्थापित संवत की स्थापना होने पर इसमें जनवरी और फरवरी माह को आरम्भ में जोड़ा गया जिस कारण दिसम्बर वर्ष का अन्तिम अर्थात् बारहवाँ महीना बन गया। इन माहों के नाम से यह भी आभासित होता है कि रोमन-सभ्यता में गिनती के नाम भी भारत से ही लिये गये थे। परन्तु वे भारत के शून्य’ का ज्ञान स्वीकार नहीं कर पाये। भारतीय अंकगणित में जिस शून्य का उपयोग किया गया है उसका वास्तविक ज्ञान भारत के आध्यात्मिक ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है। रोमन सभ्यता पूरी तरह से भौतिकवादी थी। इस सम्बन्ध में पुराणों में स्पष्ट किया गया है कि एकमात्र भारत ही ऐसी भूमि (देश) है जिसकी संस्कृति अध्यात्मवादी है जबकि शेष भूमियों (देशों) की संस्कृति भोगवादी (भौतिकवादी) हैअत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने। यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः।।(वि०पु०,2/3/22)।। शून्य की व्याख्या आध्यात्मिक ज्ञान के बिना सम्भव। नहीं है, इसलिए भोगवादी होने के कारण शून्य की स्थिति न तो समझ पाये और न ग्रहण कर पाये। फलतः उन्होंने अंकों के निर्धारण के लिए रोमन वर्णमाला का उपयोग किया। वैज्ञानिक दृष्टि से रोमन-अंकगणित असफल था, क्योंकि इसमें गुणन एवं विभाजन की कोई व्यवस्था नहीं थी।
      डार्विन अपने विकासवादी सिद्धान्त के अन्तर्गत बताते हैं कि ‘मनुष्य-जाति एवं उसकी बुद्धि (मस्तिष्क) का क्रमिक विकास हुआ। मनुष्य की उत्पत्ति वनमानुष की अगली पीढ़ी के रूप में हुआ और वह आरम्भ में पशुमानव था। फिर उसका विकास बुद्धिमान-मानव के रूप में हुआ। इस अवस्था में उसने सभ्यताओं की स्थापना की। उसका अगला विकास वैज्ञानिक-बुद्धि सम्पन्न मानव के रूप में हुआ। आधुनिक विज्ञान का आरम्भ यूरोप में हुआ, इसये डार्विन के अनुसार वैज्ञानिकबुद्धि सम्पन्न मानवों का विकसित स्वरूप सर्वप्रथम यूरोप में ही प्रकट हुआ।
            यह समझाने की कोई आवश्यकता नहीं कि गणित ही विज्ञान की आधारभूत विद्या है। जो सिद्धान्त गणित के प्रतिकूल जाते हों, उन्हें वैज्ञानिक सिद्धान्त नहीं माना जाता है, क्योंकि गणित में ही सत्य के प्रतिपादन की क्षमता है। आधुनिक विज्ञान में ‘रोमन-अंकगणित’ का कोई स्थान नहीं है। वह जिस गणित को स्वीकार करता है, वह शून्य-आधारित गणित है। इसकी जिस लिपि को सर्वमान्य समझा गया है, उस हम भूलवश अंग्रेजी-लिपि मान लेते हैं। परन्तु, यह हमारी भूल है, क्योंकि यह अंकों की अरबी-लिपि है।
      इतिहास प्रमाणित करता है कि अरबों-मंगोलों के औपनिवेशिक शासन-काल में ही यूरोपवासियों शून्य-आधारित अंकगणित का ज्ञान मिला, जिसके लिए उन्होंने अंकों की अरबी लिपि को यथावत् स्वीकार किया। इस अंकगणित के साथ-साथ यूरोपवासियों को उनसे ‘बारूद’ का भी ज्ञान मिला। इन दोनों ज्ञान को स्वीकार करने के फलस्वरूप ही यूरोपवासियों में वैज्ञानिक जागृति सम्भव हो सका। तात्पर्य यह है कि शून्य आधारित अंकगणित का प्रकाश उन्हें एशिया से मिला, इसलिए विज्ञान की आधारभूत विद्या एशिया में मौजूद थी।
      इतिहास यह भी प्रमाणित करता है कि अरबों ने शून्य-आधारित अंकगणित का ज्ञान ‘भारत’ से प्राप्त किया और मंगोलों ने यह ज्ञान अरबों से प्राप्त किया। अरबों ने अंकों की भारतीय लिपि का रूपान्तरण किया जिसे अंकों की अरबी-लिपि कहा जाता है। अतः शून्यआधारित अंकगणित का आदि-प्रणेता भारत है और भारतवासी वैज्ञानिक-बुद्धि से सम्पन्न थे। इसका प्रमाण रामसेतु से मिलता है। वर्ष 2003-04 में एक अमेरिकी भू-उपग्रह ने पता लगाया था कि रामसेतु का शेष भाग समुद्रतल पर उपस्थित है एवं अपनी कम्प्यूट्रीकृत व्यवस्था के माध्यम से इसे लगभग दस लाख वर्ष पुराना बताया था। भगवान श्रीराम ने लंका पर आक्रमण के लिए समुद्र पर रातोंरात जिस पुल का निर्माण किया था, उसे ही रामसेतु कहा जाता है। सोचिए, एक नदी पर पुल बाँधने में कई माह/वर्ष लग जाते हैं जबकि श्रीराम ने रातोंरात समुद्र पर पुल बाँध लिया था! उस समय का भारतीय विज्ञान आज की अपेक्षा कितना उन्नत था!
रमाशंकर जमैयार           

मंगलवार, 25 मई 2010

विज्ञान ने कलयुग अर्थात् कलियुग की स्थापना की है


विज्ञान की दिशा ऋणात्मक है

आज हर बात पर हम विज्ञान की दुहाई देते हैं, लेकिन कभी यह मनन नहीं किया कि आखिर विज्ञान क्या है? 16वीं सदी से यूरोप में ज्ञान का जो निरन्तर विकास हुआ, क्या वह विज्ञान है? इसके मर्म का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि इस विकास का उद्देश्य ज्ञान का विकास नहीं, आर्थिक विकास था, इसलिए अविष्कारों के रूप में नये-नये मशीनों के अविष्कार हुए, उनका संवर्द्धन हुआ और इससे सम्बन्धित नई तकनिक का विकास हुआ। इसी के कारण यूरोप में औद्योगिक-क्रान्ति हुई। कम आबादी वाले क्षेत्र में मशीनी उत्पादन और औद्योगिक क्रान्ति के कारण सामग्रियों की प्रचुरता बढ़ी तो बाजार की आवश्यकता हुई और पाश्चात्य-सभ्यता ने उपनिवेशवादी तेवर अख्तियार किये तथा उसके अविष्कारकों ने संहारक अस्त्रों का, वह भी मशीनों के रूप में विकास करना शुरु किया। इसलिए, आधुनिक विज्ञान ने 'कलयुग' की स्थापना की, ज्ञानयुग की नहीं।

       विज्ञान शब्द में ज्ञान शब्द भी अन्तर्नहित है, अर्थात् बिना ज्ञान के विज्ञान की सत्ता स्थापित नहीं हो सकती। ज्ञान का सम्बन्ध सत्य से है। सत्य की पहचान बताते हुए श्रुतियाँ कहती हैं--सत्यंशिवंसुन्दरमं अर्थात् सत्य (पूर्ण सत्य) सदैव कल्याणकारी होता है। मान लें कि कोई छेना की बनी हुई मिठाई है तो उसमें छेना के साथ रस (चीनी) मिला हुआ है, इसलिए उसमें स्वास्थ्यकर तत्त्वों और स्वाद के आनन्द का कल्याणात्मक स्वरूप प्रकट है। इसलिए मिठाई सत्य तभी है, जब वह कल्याणकारी भी है। यह कल्याण-तत्त्व मधुरता/सुन्दरता के रूप में परिलक्षित रहता है। इसी कारण मिठाईयों की आकृतयाँ भी सुन्दर दीखती हैं। यही स्थिति प्राकृतिक सत्य के साथ भी है। सत्य जितना ही पूर्ण होगा, उतना ही वह कल्याणकारी होगा और उसकी अनुभूति उतनी ही आनन्ददायक या सुन्दर होगी। इसी आधार पर ब्रह्म को पूर्ण और परम कहा गया है। सत्य की दृष्टि से भी वह पूर्ण सत्य है, परमरूप से सत्य है, इसलिए वह कल्याणकारी है। उसकी अनुभूति भी परमरूप से आनन्ददायक होती है, इसलिए ब्रह्मानन्द को सच्चिदानन्दघनस्वरूप भी कहा जाता है।
       हम सभी जानते हैं कि विज्ञान ब्रह्म (ईश्वर) की परिकल्पना से भी घृणा करना सिखाता है। यूरोप के प्रसिद्ध विद्वान, दार्शनिक और तथाकथित वैज्ञानिक क्रमिक विकास की व्याख्या ही इस प्रकार करते हैं कि ईश्वर की परिकल्पना ही मूर्खता नजर आती है। जिस सिद्धान्त में कुतर्क के द्वरा सत्य को इसप्रकार असत्य साबित किया गया होगा, वह सिद्धान्त कितना अवैज्ञानिक होगा, इसका सहज अनुमान आप स्वयं कर सकते हैं। यही कारण है कि यूरोप में स्थापित जिस विद्या को लोग विज्ञान मानते हैं, उसे मैं विज्ञान नहीं, मशीनी-विद्या या आसुरी-विद्या का नाम देता हूँ। तद्नुरूप, आधुनिक युग वैज्ञानिक-युग नहीं, कलयुग है। इसके लिये सही शब्द यदि कहीं है तो पुराणों में है जिसमें इस युग को कलियुग की संज्ञा दी गई है, क्योंकि इस युग में सत्य के स्थान पर भोग का ज्ञान है, नैतिकता के स्थान पर छलनात्मक चतुराई का ज्ञान है और विवेक को तो ग्रन्थों में वर्णित आदर्श आचार संहिता का रूप मानकर उसे अन्धविश्वास का दर्जा दे दिया गया है।
1.       आधुनिक विज्ञान ने पर्यावरण-संतुलन को बर्बाद कर प्रकृति को कुपित किया है।
यूरोप में स्थापित इस कलयुग ने मनुष्यों की इन्द्रियों एवं शरीरांगों के सुख-भोग के लिए यन्त्र बनाये हैं। यह मान लिया जाता है कि इनसे से कम श्रम में, कम ताकत लगाकर और कम समय में अपने काम को पूर्ण कर लिया जाता है। फिर, प्रशंषा की जाती है कि मनुष्य की यह वैज्ञानिक बुद्धि कितनी अद्भुत है! सायकिल से मोटरकार एवं रेल तक, पानी के जहाज से वायुयान और रॉकेट तक सभी मशीन (यंत्र) हैं। कम्पयूटर, फ्रिज, एयर कन्डीशनर आदि भी सभी मशीन हैं। इनसे कम समय में, कम श्रम से और कम ताकत लगाकर अपने काम को पूर्ण किया जाता है। लेकिन, इसी समय हम यह भूल जाते हैं कि इनमें से अधिकांश मशीनों से मानव-शरीर और पर्यावरण को प्रदुषित करने वाले धूम्र एवं तरंगें का निस्सरण होता है। इसके कारण मानव-समाज का भविष्य निरन्तर खतरनाक होता जा रहा है।
        अब तो, संयुक्त राष्ट संघ के स्तर पर पर्यवरण-संतुलन बनाये रखने एवं उत्पन्न हो रहे पर्यावरण सम्बन्धी विकृतियों को दूर करने के उपाय खोजने पर बल दिया जा रहा है। स्पष्ट है कि विज्ञान की दिशा अबतक पूरी तरह ऋणात्मक रही है, अकल्याणकारी रही है, इसलिए इसने कल्याण का नही, अकल्याण का सृजन किया है।
2.       विज्ञान के संसाधन अपूर्म और क्षणिक है
       आधुनिक विज्ञान में एक तो ऊर्जा के ज्ञान की कमी है और दूसरा उसके सोच का आधार इस कदर भौतिक है कि वह पदार्थ से ही ऊर्जा का दोहन करता है। उसे सीधे-सीधे नाक छूने की कला नहीं आती। हाथ को घूमाकर पीछे से नाक का स्पर्श करने में ही उसे वैज्ञानिकता नजर आती है। विज्ञान के साधारण विद्यार्थी भी जानते हैं कि प्रयोगशालाओं जल में एसिड मिला कर जब जस्ते तथा तांबे के प्लेट लगाये जाते हैं तो यह पाया जाता है कि जलकण टूटते हैं और एक प्लेट पर हाईड़ोजन तथा दूसरे पर आक्सीजन मुक्त होता है। ऐसा इसलिए कि जलाणु इन दोनों गैसों से ही बने हैं। यहाँ प्राकृतिक वास्तविकता यह प्रकट होती है कि इन दोनों तत्त्वों के परमाणु विद्युत-शक्ति की उपस्थिति में ही संयोगकर जलाणु रूप में संयुक्त होते हैं और जलाणु की स्थिति विद्युत-विकुंचन की केन्द्र-स्थानीय सत्ता के रूप में प्रकट रहती है। इसकारण, जैसे ही जलाणु टुटते हैं, विद्युत-आवेश भी विभक्त हो जाते हैं। ऊपर के प्रयोग में जब दोनों प्लेटों को तारों से जोड़ दिया जाता है तो मुक्त हुए विद्युत-आवेशों के कारण बिजली बहने लगती है। इसका सीधा अर्थ है कि विद्युत-शक्ति के सातत्य में जल-सातत्य स्थित है और विद्युत-शक्ति प्राकृतिकरूप से उपस्थित है। परन्तु, विज्ञान को इस प्राकृति-शक्तिरूप विद्युत का उपयोग करना नहीं आता।
       इसके लिये वह जेनरेटर नामक यन्त्र बनाता है। उसे चलाने के लिये भौतिक-ईंधन अर्थात् कोयला, खनिज-तेल आदि का उपयोग करता है। हम सभी जानते हैं कि ये भूगर्भ से निकाले जाते हैं और एक दिन इनकी उपलब्धि समाप्त होने वाली है। इसलिये, विज्ञान के संसाधन अपूर्ण और क्षणिक हैं।
3.       विज्ञान-प्रेरित आधुनिक संस्कृति मानव-समाज के लिये घातक है
       वैज्ञानिक अविष्कार एक ओर तो पर्यावरण-असंतुलन का कारण बन रहे हैं और ओजोन-परत का क्षिद्र बढ़ता जा रहा है जिसके कारण ऋतुएँ बदलने लगी हैं। आँधी-तूफान, सुनामी, ज्वालामुखी-विस्फोट आदि प्राकृतिक प्रकोप की घटनाएँ बढ़ रही हैं। यह सब प्रकृति का चक्र नहीं, मानव की आसुरी-बुद्धि का प्रकृति-विरोधी आचरण का परिणाम है।
       वैज्ञानिक अविष्कार एवं इनके कारण स्थापित नई संस्कृति मानव-शरीर की प्रकृति के लिये घातक हैं। मनुष्य जब अपने अंगों का प्रकृति द्वारा निर्धारित मापदंड के अनुरूप संचालन नहीं करता तो उसके अंग धीर-धीरे कमजोर होने लगते हैं। सुख-सुविधाओँ के कारण मनुष्य अपने पैरों-हाथों से कम से कम काम करने लगा है। इससे न केवल हाथ-पैरों की शक्ति कम होती जा रही है, बल्कि बैठे रहने एवं सुस्थी की अवस्था में उदर की चपाचय-शक्ति भी प्रभावित हो रही है। एयर-कन्डिशनर एवं अन्यान्य सुविधाओँ के उपयोग ने हमें प्रकृति से इतना दूर कर दिया है कि पौ-फटने के समय की हवाओं तथा प्राकृतिक सान्निध्य सपना बन चुका है। रात्रि में देर तक जागकर मनोरंजन और क्लब-साधना के कारण मल-मूत्र का त्याग हम तब करते हैं जब सूरज सर पर चढ़ चुका होता है। हमारा ही मल-मूत्र तबतक सड़कर हमारे शरीर को भीतर से खराब करता होता है और हम समझ नहीं पाते। इसकारण, बीमारियाँ नाना-प्रकार के विभत्सरूप धारण कर रही हैं और हम यह सोच कर रह जाते हैं कि विज्ञान एक दिन उन बीमारियों की दवाएँ इजाद कर लेगा। कर भी लेता है तो कुछ होने वाला नहीं, क्योंकि जब तक वह पिछली बीमारी की दवा खोजेगा, तबतक अगली कोई नई बीमारी प्रकट होगी।
4.       विज्ञान सामाजिक असुरक्षा का कारण बन चुका है
    वैज्ञानिक अविष्कारों के रूप में विज्ञान निरन्तर घातक से घातक शस्त्रास्त्रों का निर्माण करता चला आया है। यूरोप में विज्ञान की स्थापना-काल से भारत की आजादी के पूर्वतक विश्व ने कई विश्वयुद्ध देखे हैं जिसके पीछे विज्ञान के अविष्कार ही रहे हैं। हिरोशिमा पर परमाणु-बम गिराये गये, जिसका परिणाम आज भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। अब, शान्ति-काल चल रहा है। दो ध्रुवीय विश्व में अमेरिका का प्रतिद्वन्दी सोवियत-संघ टूट गया। क्या फिर भी, शस्त्रास्त्रों के अविष्कार एवं निर्माण में कहीं कोई कमी आई है? निश्चय ही नहीं। क्योंकि, यह सब मानव-हित के लिये नहीं, आर्थिक लाभ के लिये है। पाश्चात्य देशों की छलनात्मक कूटनीति भिन्न-भिन्न देशों में आतंकवादियों एवं तानाशाहों को स्थापित करती हैं, उनसे धन लेकर उन्हें शस्त्रास्त्र मुहैया कराया जाता है। फिर शस्त्रास्त्रों की बिक्री के लिये दो तानाशाहों को एक दूसरे से उलझा दिया जाता है। आज के अपराधी चाहे चाहे वे नक्सलवादी-आतंक स्थापित करते हों, या राष्ट्र-विरोध के लिये खड़े किये गये हों या जेहाद के नाम पर स्थापित किये गये हों, या तस्करी आदि से सम्बन्धित माफियावादी संगठन ही क्यों न हों, सबके पास नई-नई आधुकनिकतम तकनिक वाले हथियार हैं जो कई देशों के सामान्य पुलिस-धानों तक मुहैया नहीं रहते। इससे सामाजिक असुरक्षा की स्थिति सम्पूर्ण समाज में व्याप गई है।
    इन विश्लेषणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञान की दिशा पूरी तरह से ऋणात्मक है, अकल्याणकारी है। इसने आसुरी-प्रवृत्ति का चयन किया है, कलयुग की स्थापना की है। इसमें सत्य-स्वरूप ईश्वर का कोई ज्ञान नहीं है। नैतिकता, विवेक और आत्मबल का कोई विचार नहीं है। सत्य-विमुख ज्ञान की तकनिक को विज्ञान कैसै कहा जा सकता है?
    ऐसी भी बात नहीं कि विज्ञान का सही स्वरूप का कोई वजूद नहीं। विज्ञान के सही स्वरूप की स्थिति अभी भी भारत में वैदिक-विज्ञान के रूप में वर्तमान है। हमें इसकी पुनर्स्थापना करके दुनिया से कलयुग अर्थात् कलियुग की स्थिति को शीघ्र समाप्त करना होगा।  
रमाशंकर जमैयार
(Ramashankar Jamayyar)
ई-44, कोशी कॉलोनी, वीरपुर (सुपौल), बिहार।