यहाँ पर सहज प्रश्न उठता है कि आखिर यह ‘ब्रह्म‘ तर्क, विचार और बुद्धि से परे क्यों हैॽ वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि हमारी (सभी जीव-जन्तुओं समेत) अनुभूतियाँ सापेक्ष होती हैं, इसलिए यह निश्चित हो जाता है कि बुद्धि, विचार और तर्क भी सापेक्ष होते हैं—निरपेक्ष नहीं हो पाते। चूँकि ‘ब्रह्म’ निरपेक्ष है, सापेक्ष नहीं, इसलिए उसकी अनुभूति नहीं हो पाती और न वह बुद्धि, विचार और तर्क के अन्तर्गत आ पाता है। अतः हम प्रश्न उठा सकते हैं कि उसमें निहित जो निरपेक्षता है, वह क्या हैॽ
भारतीय मनीषियों ने इस सन्दर्भ में ब्रह्म के गुणों (विशेषता) का निरुपण करते हुए कहा कि वह ‘अनादि-अनन्त’, ‘कालातीत’ और ‘अखण्ड’ है। ‘कालातीत’ (काल+अतीत) का अर्थ है समय-गुणक से परे और ‘अनादि-अनन्त‘ का अर्थ है स्थान-गुणक से परे। तात्पर्य यह है कि ‘वह’ स्थान और समय गुणकों से परे है। इसका सीधा-सा तात्पर्य यह है कि ‘ब्रह्म‘ परम है, क्योंकि वह माप के सभी गुणकों से परे है। फिर भी, वैदिक-विज्ञान बताता है कि यही ‘ब्रह्म’ संज्ञक परम-सत्ता ही इस सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का वास्तविक ‘सत्य’ है।
इसके ठीक विपरीत, एक और तो आधुनिक विज्ञान स्वयं को सत्य का प्रतिपादक कहता है और यह दावा करता है कि वह वह अपने वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में सत्य का परीक्षण करके उसका प्रतिपादन करता है, वहीं दूसरी ओर वह ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। यहाँ पर वह स्पष्ट करता है कि विश्व में कोई भी निरपेक्ष-सत्ता नहीं है।
यहाँ पर असलियत यह है कि आधुनिक विज्ञान महज सापेक्ष-सत्ताओं का परीक्षण करता है, क्योंकि उसकी सीमा ‘सापेक्षता’ तक ही सीमित है। वह वास्तविक सत्य (ब्रह्म) का प्रतिपादन करने में अक्षम है। अपनी अक्षमता के कारण वह उसने ‘ब्रह्म’ को अंधविश्वास की संज्ञा दे रखी है। पाठक यह न समझें कि मैं स्व-विवेक से आधुनिक विज्ञान को इस सन्दर्भ में अक्षम बता रहा हूँ। आधुनिक विज्ञान के सुप्रसिद्ध दार्शनिक आइन्स्टीन महोदय ने भी जर्मन वैज्ञानिक मैक्सबोर्न को लिखे पत्र में इस अक्षमता की चर्चा की है और यह कामना की है कि एक दिन ऐसा आयेगा जब विज्ञान ‘परम-सत्ता’ के आस्तित्व की वैज्ञानिक व्याख्या करने में समर्थ हो पायेगा।
क्या ‘ब्रह्म’ कोई सत्ता हैॽ
भारतीय मनीषी और प्राचीन ग्रन्थों के रचनाकार बताते हैं कि ब्रह्म सर्वशक्तिमान है-- परमेश्वर है—सबका नियन्ता है। लेकिन, इससे यह पता नहीं चलता कि सत्ता की दृष्टि वह क्या हैॽ जहाँ तक विज्ञान का प्रश्न है, वह दो प्रकार की सत्ताओं को जानता है---पदार्थ और ऊर्जा। इतना तो आभास होता है कि अभौतिक होने के कारण ‘वह’ पदार्थ से परे है। दूसरी सत्ता है ऊर्जा। वैज्ञानिक सन्दर्भ में पदार्थ की सत्ता को पारिभाषित करते हुए यह कह सकते हैं कि वह शून्य में स्थान ग्रहण करता है तथा वह भारगुणक के अन्तर्गत होता है। इसके ठीक विपरीत, ऊर्जा शून्य में स्थान नहीं छेकती और वह भारगुणक से परे है। वैज्ञानिक बताते हैं ऊर्जा के ध्वनि, विद्युत, चुम्बकत्व आदि अनेकानेक रूप हैं और वह एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती हुई एक अनश्वर सत्ता है।
यहाँ पर वैदिक विज्ञान सुनिश्चित रूप से बताता है कि ‘वह ऊर्जा’ जो एक रूप से दूसरे रूप में परिणत होती हुई अनश्वर है, उसका इन रूपों के अतिरिक्त एक मौलिक-स्वरूप भी है जिसे ‘ब्रह्म’ की संज्ञा दी जाती है। अर्थात् ब्रह्म ही ऊर्जा का मौलिक स्वरूप है जो अनश्वर (समय-गुणक से परे) तथा अनादि-अनन्त (स्थान गुणक) से परे है। ऊर्जा का यह मौलिक-स्वरूप (ब्रह्म) ध्वनि-ऊर्जा का ही परम-स्वरूप है। इस सिद्धान्त के आधार पर यह भी सिद्ध होता है कि ऊर्जा के सभी रूपों में ध्वनि-ऊर्जा ही मौलिक-ऊर्जा का निकटतम स्वरूप है।
भारतीय साधक ॐ ध्वनि का जाप करते हैं। इसमें ओ के उच्चारण में जितना समय लगता है उसका तीनगुना समय लगाकर ‘ओ’ का उच्चारण करते हैं और हेलन्तयुक्त म (म्) को मिलाकर इस मन्त्र को पूरा करते हैं। व्याकरण के अनुसार इस ध्वनि में अ, उ, और म् की मात्राएँ संयुक्त रहती हैं, फिर भी यह ध्वनि इकाई-ध्वनि है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि ॐ की ध्वनि अ, उ, और म वर्णों का संयुक्ताक्षर नहीं है, बल्कि इसमें इन तीनों की मात्राएँ मात्र ही शामिल हैं। इसी ॐ से उपरोक्त तीन वर्णों की उत्पत्ति हुई है। साथ ही, यह भी सत्य है कि जिस ॐ-ध्वनि का हम उच्चारण करते हैं वह ॐकार-वाच्य अर्थात् ब्रह्म-ध्वनि नहीं है, बल्कि उसकी निकटतम प्रतीति मात्र है, क्योंकि हमारे स्वर-तंत्र भौतिक हैं; वे निरपेक्ष-ध्वनि नहीं उत्पन्न कर सकते। इस ध्वनि का अभ्यास हमारे अन्दर के उस तंत्र (मन) को झंकृत कर देता है, जहाँ वास्तविक ॐकार-वाच्य को प्रकट किया जा सकता है। विदित हो कि विज्ञान के आधार यह मान्य है कि ध्वनियों और कम्पनों में उपपादन (induction) का गुण है। इसकारण ही, अभायास से वास्तविक ‘ॐकार वाच्य’ मनरूप अन्तर्पटल पर व्यक्त होने लगता है।
रमाशंकर जमैयार